टूटता है बदन मेरा
दिन भर के काम से
लुटती है रूह मेरी उस
मालकिन हैवान से
रूखा सुखा खाती हूँ
बच्चों का मल उठाती हूँ
मैं बंद कमरों में घुटती
अंदर ही अंदर चिल्लाती हूँ
बाहर की रौशनी मुझे
कभी नशीब होती नहीं
बदहवाश सी रहती हूँ
ऐसा नहीं कि रोती नहीं
उड़ती हुई तितलियाँ
मुझे भी बहुत भाती हैं
वो मुझसे मिलने आती है
जब मालकिन बाहर जाती है
खेलते हैं खिलौनों से बच्चे
मैं उठा उठाकर पकड़ाती हूँ
झाड़ू कटका करती हूँ और
बर्तन भी चमकाती हूँ
जालिम पेट ने मेरे
हाथ पौचा थमा दिया
कायर तंग माँ बाप ने
बचपन काम पर लगा दिया
सच्चाई उजागर कर दी
आपने।दिल को छूने लायक
कविता।
आप कि मॅ बहुत सी कविता पढि हॅ लेकिन आज जो लिखा वह आज नहीं। तो कल ।कल नहीं तो परसो जरूर पढी जाएगी जॅसे आज डायनसोर कि कहानी पढते हॅ लोग best of luck
मित्र आप का प्यार और प्रोत्साहन
हमें फिर से जिन्दा कर देता है