कोई दर्पण कहता है, कोई आईना कहता है
मैं एक कांच का टुकड़ा जिसमे हर कोई रहता है
पहने कोई नकाब, या बदले रूप कोई अनेक
मेरे सामने आते, जो जैसा हो वैसा दिखता है
लाख करे कोई खुद से बेईमानी कहाँ बच पाता है
कैसे मिलाये नजर मुझसे फिर ये सोच कतराता है
तुम छुपा लो चेहरे को पर मन का काला दिखता है
मै तो मन की मूरत हूँ मुझसे कहाँ कुछ छिपता है
जितना चाहो टुकड़े कर दो “धर्म” सच तो दिखता है
मै तो ठहरा तेरी हकीकत,सब में एक सा दिखता है
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डी. के. निवातियाँ [email protected]@@
कोई दर्पण कहता है, कोई आईना कहता है
मैं एक कांच का टुकड़ा जिसमे हर कोई रहता है
क्या बात है सर जी।छा गए।
जी, शुक्रिया !!
Nice ……………
जी, शुक्रिया !!
छा गये गुरु
जी, शुक्रिया !!