रोयी तन्हा शाम तो सावन की बदली बन गई
एक कन्कर जो गिरा सागर में हलचल मच गई.
वक्त ने महका दिया है याद का गजरा कोई
इस जमी से आस्मां तक खुश्बू सारी रच गई.
आंसुओं के मोल का अन्दाज उनको क्या भला
छींक भी जिनकी यहां पर एक कहानी बन गई.
ढूंढ्ता है रात दिन अब दिल यहां पर क्यू वफा
हर कदम पर जिस्म की सारी नुमाईश लग गई.
रूप की बुनियाद थोथी चांदी की दीवार है
हाथ में पत्थर उठाया और दुनिया डर गई.
दूर तक फैली हुई है चान्दनी की एक परत
और सपनों की परी जेहन मे आकर बस गई.
दास को गुमराह अब तक आपने इतना किया
कागजी फूलों पै तितली खुद ही आकर मर गई.
शिवचरण दास