कलयुगी जमीं पे जन्मीं
अतिरिक्त बोझ सी भारी हूँ
पुरूष प्रधान समाज की
शापित पापमय नारी हूँ
जंजीरे बाँधी अपनों ने
बचपन मेरा अलसाया
हरितमय उपवन में कहीं
खिला गुलाब मुरझाया
नवयौवन का दोष नहीं
काल कोठरी ने अपनाया
क्यों घूम रहा शहर में
दरिंदगी का काला साया
ज़मानेसे क्या उम्मीद करुँ
जिसने लिखे काले लेख
पुकार रही माँ मेरी
बाहर खड़े है दुश्मन देख
नजरें घूमा रहीं दूर तक
पामर पापी जमाना सारा
लड़ती रहू कब तक अकेली
बिखरे मोती सा जीवन हारा
किसी ने मारा कोंख में
किसी मातृत्व ने पाल लिया
जैसे उस मरते कुसुम को
अमृत रस में डाल दिया
आशाभरी है नज़रे मेरी
वक़्त मेरा कब आएगा
जब खुली साँसों को पीकर
रोम-२ रूह का खिल जायेगा
बढ़िया।