चाहा तो ना था कि चाहूँ तुझे झतना
की बंद आँखों स॓ भी तू ही नजर आए ।
नजदीक आके जरा मुसकुरा के
नशीली सी नजरों को नीचे झुकाके
जरा अपने होठों की लाली दबाके
जुलफों के परद॓ से चहरा छुपाके
क्यों मेरी दड़कनों को था तुमने बढ़ाया ?
क्यों मिलती थी मुझसे बहाने बनाके ?
हाँ फूलों में काँटे भी होते हैं लेकिन
क्यों राहों में तुमने बस काँटें बिछाए ?
खून बहते हैं पैरों के नीचे लेकिन
ज़ख्म दिल के तो झनसे भी गहरे बड़े हैं ।
यूँ जमाने का डर था तुझे जो झतना
क्यों आते थ॓ सपनों में सपने दिखाने ?
मेरी वफाऒं पे शक़ था जो झतना
पूछा तो होता अपने दिल को दबाके
बया कर वो देता मेरी सारी दासता
मगर तुझको तो खुद पे भी भरोसा नहीं था ।
फासले क्या कम थे जो नज़दीक आके
नफ़रत की दीवार जो तुमने बनाया
पल पल मेरे सामने किसी और को अपना के
मेरी मुहब्बत को तुने यूँ जो ठुकराया
हिम्मत कहाँ थी जो तुझे मैं कुछ करता
झतनी शीद॒दत से जो दिल में संजोया था तुझको
सोचा सपनों में ही कर लूँ तुझ॓ अपना
सो बंद कर ली अपनी आँखें हमेशा ।
चाहा तो ना था कि चाहूँ तुझे झतना
की बंद आँखों स॓ भी तू ही नजर आए………
क्यारी सजी मेरे आँगन में लेना होगा तो आ जाना !
बहुत सजाया उसको उसने वहिना मनवाली पाना ||
फुल देकर क्या फ़ायदा, मुहब्बत तो होती है दो दिलों के जोड़ से ।
झुठा ही सही, वो भी खुश होते हैं उनकी मौत से।।
शुक्रिया Sukhmangal Singh जी मेरी कविता संपादित करने के लिए।