जब चल रहे थे उस रोज़ हम-तुम नदी किनारे..
उन लिपटी हुयी हथेलियों के बीचों-बीच
पनपने लगे थे ख्वाब कई सारे
जब चल रहे थे उस रोज़, हम-तुम नदी किनारे..
उस तन्हाई में भी थे आस-पास
कई गवाह उस मरासिम के,
डूबते हुए सूरज की लालिमा भी,
और पिघलते हुए बादल की स्याही भी…
जब चल रहे थे उस रोज़, हम-तुम नदी किनारे..
खुश होकर बिखेर रही थी रात अपनी चांदनी,
घुल रही थी मचलते लम्हों में चाशनी धीरे-धीरे,
मिलता-जुलता था उस रात का चेहरा मेरे दुपट्टे से,
वहां ऊपर तारे टिमटिमा रहे थे,
यहाँ नीचे जुगनू जगमगा रहे थे…
जब चल रहे थे उस रोज़, हम-तुम नदी किनारे..
too gd work dear “garima” great imagination……hope i can do the same with my imagination
बहुत बढ़िया। मजा आगया पढ़ कर।
supper…
Panapne lage the khwaab ssare conveys so much…