कौशाम्बी की कपकपाती ठंडी में,
कौड़ा तापते-तापते,
एक ख्याल मन की गली से गुज़रा..
क्या ये लाल-लाल कोयले के टुकड़े,
आपस में बातें करते होंगे?
जलते-जलते अपने आखरी दम में,
जिस खान से निकले थे,
क्या उस कोख को याद करते होंगे?
मीलों का सफर तय करके,
पहुँचते हैं किसी घर की रसोई के चूल्हे में…
खुद जलकर बुझाते हुए किसी की भूख,
क्या ये खुश होकर बिलखते होंगे?
जब सहलाते होंगे घर के बुज़ुर्गों की बूढी हड्डियों को मंद-मंद आंच से,
तब क्या उनके आशीर्वाद को ये भी तरसते होंगे?
कौशाम्बी की कपकपाती ठंडी में,
कौड़ा तापते-तापते,
एक ख्याल मन की गली से गुज़रा..
गरिमाजी बधाई,
‘चेहरा कोयले का…’ में आपकी संवेदनशीलता के लिए |
गरिमाजी कविता अच्छी लगी जिसमे से “पहुँचते हैं किसी घर की रसोई के चूल्हे में…
खुद जलकर बुझाते हुए किसी की भूख,” लाइन अच्छी लिखी है l
अच्छी रचना !!
Bahut acchi Rachna..badhai garimaji
Badhiya kavya hain!! Koyle ki garmi toh sab mahsoos karte hain par unke andar ki bhavna kya hogi aapne saamne chitra khada kar diya!!