यूँ ठहरा है वक्त वहीं, कुछ भी तो नया नहीं होता।
सोच बदले तो सब बदले, कुछ यूँ ही नया नहीं होता।।
वो ही छीना-झपटी, दौड़-भाग, कैसे कहूँ कुछ बदल गया।
कितने सारे वर्ष हैं निकले, ये वर्ष भी निकल गया।।
उपद्रवी सारे सबल यहाँ, अबला अब भी अबला है।
कैसे कह दूँ नारी को, साल में कुछ भी बदला है।।
नया वर्ष तब ही होगा, जब नये विचार लहराएंगे।
आगे की पीढ़ी में जन-जन, राम, कृष्ण जन पाएंगे।।
अरुण जी अग्रवाल
बहुत सुन्दर अरुण जी …
शुक्रिया कौशिक जी
बहुत बढ़िया अरुण जी !
और लिखियेगा इसी विषय पर और सुनने की इच्छा है
धन्यवाद
वैभव
शुक्रिया वैभव जी। कोशिश करूँगा कि फिर कुछ ऐसा लिखूँ आप सभी के लिए
बहुत सुंदर।।।।
मैंने आपकी सभी रचनाएं
पढ़ी हैं ।।
आप बहुत अच्छा लिख रहे
हैं।।
शुक्रिया दुबे जी