अपने साये ही यहां जब आंख दिखलाने लगे हैं
दोपहर में भी हमें तारे नजर आने लगे हैं.
इस शहर में हर तरफ शान्ति का राज है
दिन दहाडे डाकुओं के दल कहर ढाने लगे हैं.
अब भला फुर्सत कहां है प्यार करने की यहां
दिल नहीं अब जिस्म को लोग महकानें लगे हैं.
वक्त को देखा है जिसने सच का काजल डालकर
खन्जरों की धार पर वो पांव अजमाने लगे हैं.
पी लिया करता हूं जब भी होश आता है मुझे
बिन पिये तो आजकल ये होश भी जाने लगे हैं.
फेंक दो अपनी जबाने काट्कर सब दोस्तो
इस शहर के लोग कुछ ज्यादा ही बतियाने लगे हैं.
हो गये हैं अजनबी हम दास अपने आप से
फासलों के राक्षस रिश्तों को बस खाने लगे हैं.
शिवचरण दास
बहुत अच्छी कविता है
बहुत बहुत शुक्रिया आभार