कलयुग की माया ( भाग दो )
कुत्ते खाते दूध मलाई,गौ माता को मिलती घास नहीं
गीदड़ बन गए वनराज यंहा, अब घोड़े खाते घास नही
जींस पहन के नारी रहती, आँचल का पल्लू पास नही
माँ की गोद को तरसे बच्चे, वक्त किसी के पास नही
दारू पीते घर के मालिक, बच्चे को दूध की आस नहीं
मांस मदिरा के आदी हो गए,शर्बत किसी को रास नही
फ़िल्मी गाने सब है रटते,भजन आरती अब याद नही
ढोंगी बाबा घरो में पुजते मात-पिता की अब याद नही
चोर उचक्के नेता बन गए, झूट सच की बात नहीं
नीरे अनपढ़ देश चलाते जिनकी घर में औकात नहीं
संग संग चलते एक दूजे के, फिर भी कोई साथ नही
अपने घर में डर लगता है, बचने की कही आस नही
कैसा ये जमाना आया जीने में अब रास नही
कलयुग की माया देखो इसमें कोई पाक नही
—-::: डी. के. निवातियाँ :::——–
Beautifully written . Aja ke zamane ki theek taster khench kar rakh di aapne Nivatiyan JI .bahut sundar .
आज के समाज की बदलती दशा….हमारी मनःस्थिति…..हर एक को जगाने की कोशिश करती बेहतरीन कृति है ये दोनों भागो में……बात मैं फिर वही कहूंगा…हाहाहा….आपकी ‘कवी महोदय’ की सार्थकता कितनी लाजवाब है….मानना पड़ता है…’स्वार्थी और बड़ा होने की भावना’ से बुरी तरह से ग्रसित है कवी समाज भी….जय हो…..
आपके साहित्य प्रेम का मै कायल हूँ ………… ये आपकी महानता है बब्बू जी, जो आप रचनाये खोज खोजकर पढ़ते है ……….ऐसा एक साहित्य प्रेमी ही कर सकता है ……….जहां तक बात कवी वर्ग की है आज के परिवेश में कोई क्षेत्र इस समस्या से अछूता नहीं है ………..!!
इतना अवश्य है की यदि शायद ” कवि महोदय ” को कोई पढ़े तो आत्मचिंतन के विवश अवश्य होगा…करे या न करे वो व्यक्तित्व पर निर्भर करता है …हा हा हा हा हा !!
पुन: धन्यवाद और हृदयतल से आभार आपका ………!!