मैं हूँ बैग, आपने रोज मुझे सड़कों पर आते-जाते बच्चों के कंधों पर लटका देखा होगा। मेरी जिन्दगी की कहानी बड़ी दुखभरी हैं। मैं सुबह जल्दी उठता हूँ और रात भर देर तक जागता हूँ । कभी-कभी तो बच्चे मुझे तकिया बना लेते हैं। रोजाना छः बजे उठकर किसी के कंधे पर लटककर चलना, रात को उपेक्षित सा पड़ा रहना मुझे बुरा लगता हैं। जब बच्चे सुबह-सुबह ढेरों कॉपी-किताब भरकर कंधे पर लटकाते हैं तो मुझे उनकी पीठ से चुभन होती हैं, उनके उठते कंधे के दर्द से बैचेनी अनुभव करता हूँ। दर्द उन्हें होता हैं और हिलाते-डुलाते मुझे हैं। पुस्तकों के ढ़ेर से बच्चे परेशान होकर मुझे कोहनी तक मार देते हैं। मेरे वजन के बोझ से वे तो पैन किलर लेकर दर्द दूर कर लेते हैं, लेकिन मैं तो ये भी नहीं कर सकता।
बच्चे विद्यालय जाते हैं, उन पर जब मैं नहीं उठता हूँ तो उनके रिश्तेदार या माता-पिता मुझे लटकाकर ले जाते हैं। कभी-कभी तो दुःखी बच्चे मुझे उतारकर फेंक देते हैं जिससे मेरे कपड़े छिल जाते हैं। सुबह उठकर मुझे सभी की मनहूस गालियाँ तक सुननी पड़ती हैं। अध्यापकों तथा शिक्षाविभाग द्वारा निर्धारित कोर्स बच्चे मेरे अंदर रखकर विद्यालय जाते हैं, परेशान होते हैं और गालियाँ मुझे पड़ती हैं।
बच्चे मुझे हेय दृष्टि से देखते हैं, परिवार के लोगों का कोप मुझ पर बरसता हैं। इतना भी हो तो बस․․․․․। लेकिन बच्चे जब मुझे फाडकर नष्ट कर देते हैं तो वे बाजार से नया मंहगा बैग फिर खरीद लाते हैं। खर्चा परिवार का होता हैं, बच्चों की जिद होती हैं लेकिन मेरा दोष तनिक मात्र भी न होने पर डाँट मुझे ही पड़ती हैं, नाम मेरा ही आता हैं। मेरे अन्दर पड़ी पुस्तकों को कोई कुछ नहीं कहता, शिक्षा विभाग को कोई कुछ नहीं कहता। मुझे तो ये समझ नहीं आता कि क्या शिक्षा विभाग में निर्धारित पुस्तकों का निर्णय करने वाले अधिकारीगणों के बच्चे शिक्षा के इस बोझ तले नहीं दबते हैं क्या उनके बच्चों के हाथ-पैर मशीनी हैं।
लेकिन ․․․․․․․․ मैं अपनी व्यथा किससे कहूँ? मजबूर हूँ मानव के अत्याचारों को सह रहा हूँ, आप तक बात पहुँचाना चाहता था जो पहुँचा दी․․․․․․․․।
आगे आपकी मर्जी, अपुन को तो बस सहन करने की आदत सी पड गयी हैं।
kavi
vinay bharat
बहुत अच्छा लिखा है मित्र आपने । http://www.sanatansewa.blogspot.in/
शुक्रिया