वो भीम था खडा मेरा, तो तुफाँ भी रुख बदलकर चला गया
अधर्म से भरी मनु स्मृति को, वो भीम जलाकर चला गया
काल के अंधेरे में सूरज की भांती उतरकर गुलामी की हर जंजीर को, वो भीम काटता चला गया
दे दी आझादी, हर जुल्म की दीवार तोडकर
जहां में शिक्षा की रोशनी, वो भीम बांटता चला गया
संस्कृती हर किसी के नसीब में नहीं थी जब
अभागे उस हर पौधे को, वो भीम खिल-खिलाकर चला गया
जाना तो होता ही है झुठ को किसी न किसी दिन
सो भीम की मौजुदगी मे मनु भी तिल-मिलाकर चला गया
कब बुझेगी ये आग, कब होगा नया सवेरा सोचने के लीये मजबूर करते, वो भीम दिल-दहलाकर चला गया
रचनाकार/कवि- धिरजकुमार ताकसांडे (९८५०८६३७२२)
बहोत बढिया… वास्तविकता से भरपूर