दरवाजे पर वक़्त मेरे
दस्तक दे रहा है
गुजर रहा हूँ मैं
और तू सो रहा है
धरा धूरि पर कदाचित
विपरित घूमती नहीं
घडी की सूई भी फिर
मुख चूमती नहीं
ये नदियां ये समुन्द्र
हलचल रोज करता है
और तू अकर्मी निराधम
दिया औरों का भोगता है
निर्लज खड़ा हो जा
ये क़र्ज़ बड़े बोझ का है
पल पल तुझे सिखाये
तेरे बचपन बोध का है
रौशनी के लिए मुसाफिर
खुद को जलाना पड़ता है
धर्म की बेदी पर ,कर्म का
टीका लगाना पड़ता है
तुझमें ब्रम्हा ,तुझमें शिव
तुझमें ही शिशुपाल यहाँ
लेकर के ईश्वर का अंश
जाने तुम सो गए कहाँ
भोर ना होगी
जब तू नहीं जागेगा
कब तक भूल कर खुद को
औरों के पीछे भागेगा