पर्वत के उस पार से
नीड मे लौटते पंछी
डैनों को फैलाकर
कुशलक्षेम पुँछते
दिन भर के थके हारे
पर अहा!
नहीं मिलता आराम।।
जहाँ बनाया था आशियाँ
बैखौफ कुछ लोग
कर रहे थे उन्हें वीरान
नहीं समझ रहा था कोई
उनके मन की पीड।।
बस गिर रहे थे पेड़
उजड़ रहे थे नीड।।
अण्डे कई फूट गये
कुछ द्रुमदल में अटक गए।
जिन्हें शायद द्रुमदल
महफुज कर रहे थे
अपने आँचल में।।
इधर चीं-चीं के शोर में
कुछ बुँन्दे पल्लवों पर गिरी
हतप्रभ पल्लव जो अपने
मिटने के ग़म से
सजल नेत्र थे।।
ख़ामोश हो बादलों की तरफ़
देखने लगे इस बेवक्त की बौछार को
मगर पलकें स्वत:
हो गई बन्द
ये बुँन्दें थी उन गमजदा पंछीयों की
जिनके अण्डे
कुछ देर पहले तक।
महफुज थे नीड में
जो अब कालग्रस्त हो
बिखरे पड़े थे
इंसानी भीड में।।
आप सबकी स्नेहिल प्रतिक्रिया का इंतज़ार
बहुत ही सुन्दर…लालच में और भाग दौड़ में हम कितना नुक्सान कर रहे…हर किसी का उत्तम रचना…