और नया साथी होता कोई
और नया मंजर होता,
आज तुम्हारे अधरों को मैं
चूम न लेता क्या होता?
देवलोक की हूर नहीं तुम
ना तुम मलिका सावन की,
माँग तेरी मैं ना भरता तो
बोल तेरा फिर क्या होता?
घास डालता कोई नहीं तू
नागिन जैसी लहराती,
दर-दर फिरती ठोकर खाती
सबके तलवे सहलाती,
मैंने तुझको जन्नत दे दी
देवलोक का राज दिया,
करता ये अहसान नहीं तो
बोल तेरा फिर क्या होता?
भइया के घर कबतक रहती
कबतक फिरती गली-गली,
छुपा-छिपी के खेल में तू
होती और जवान चली,
भरी जवानी से लद जाती
लाता अगर बारात नहीं,
पहनाता मंगलसूत्र नहीं तो
बोल तेरा फिर क्या होता?
थू-थू होती तू ना होती
होते थुक्कम थुक्का लोग,
चढ़ जाती शूली पर अबला
अनर्थ को देते धक्का लोग,
हमने तो बस अपनी खातिर
तेरे दिल को मान दिया,
माँगी होती स्वप्न सुन्दरी
बोल तेरा फिर क्या होता?
(शुरुआती दौर में धर्मपत्नी
से मटरगश्ती करते हुए)
कविता की भावना से लगता है कि नारि से परिणय नही एक अह्सान किया गया सामाजिक परिद्रश्य मे ये असहज है.
नहीं आनन्द जी,पुरुष कभी भी स्त्री पर अहसान नहीं कर सकता।कविता के भाव पत्नी के साथ मटरगश्ती करते हुए हैं।अंतिम पंक्ति ‘हमने तो बस अपनी खातिर,तेरे दिल को मान दिया’ अर्थात स्त्री से हमारा स्वार्थ जुड़ा है अहसान नहीं।टिप्पणी में आपके भाव सराहनीय हैं।सादर
अगर आप ने स्वम से जुडी महिलाओ के भीतर के प्रेम की भावनावो को देखा होता
तो ऐसे विचार कभी ना होता
रिंकी जी,अपनी पत्नी के साथ इस प्रकार की अठखेलियां उन्हें हीनता की द्रष्टि से नहीं अपितु समान अधिकार देती हैं।मैं महिलाओं के अधिकारों के प्रति सजग हूँ और उन्हें स्त्री-पुरुष व्यवस्था के तहत स्वचालित व्यवस्था के सूत्र में पिरोना चाहता हूँ।अभी सही मार्गदर्शन नहीं मिल रहा जो उड़ान भर सके।आपकी टिप्पणी के लिए धन्यवाद।