मेरे पिता को याद हैं
चमङे के बेल्ट से बँधी
ये घंटियाँ
जब
दूर से सुनाई पङती
दादा जी पानी मिलाते
नाद में
जान जाते
गोला बैल
लौटते हुए
खेतों से
झटक रहा माथा ।
पिता को याद है
तब दादी
अंतरिक्ष को
दिखाती होती
दीया ।
आज भी
बैल की
पीठ की तरह
चिकनी हैं घंटियाँ ।
नदी पानी पहनकर
नयी दुल्हनिया लगती
बरसात में
खाली घङे में
समाती पानी की आवाज़
जगाती धनहर
खेतों की माटी ।
पिता को याद है
खेतों को
नाम से पुकारते
दादा जी ।
पिता को याद नहीं
ठीक-ठीक
कौन से
नाम थे
खेतों के ।
पिता को याद नहीं
किस बरसात में
मिट्टी के घङों सी
भरी नदी ।
किस बरस मरा
गोला बैल ।
सुबह अब
खेतों की मिट्टी पर
मिलते हैं
भालू के पंजों
के निशान ।
एक म्यूजियम
से कम नहीं है
दादा जी की संदूक ।
मैं नहीं जानता
आने वाले दिन
कैसे कटेंगे
पॄथ्वी के
मुझे कितना
याद रहेगा
छोटी-छोटी
पीतल की घंटियाँ
पहन जब
दूर खेतों से लौटता
अपना माथा झटकता
गोला बैल
नाद का
पानी बदलते
दादा जी
तब दादी
दिखलाती थी
अंतरिक्ष को दीया ।
हाँ स्मृति ही तो शेष रहती है।
स्मृति तो अतीत है वर्तमान और भविष्य दाँव पर हैं ।