1-.
खाता था सर की कसम
सर ही न बख्शा यार ने,
निकलते ही म्यान से
जल्वा दिखाया तलवार ने,
किया था कैद ही उसने
जुल्फ का जर्रा-जर्रा,
की नाशाद जवानी मेरी
मेरे दिलदार ने।
2-
बेखबर सोए पड़े
मंत्री,नेता,अफसर बड़े,
उसकी जवानी लुट गई
हवालात में पड़े,
कौन उसका दोष था
मासूम थी मजलूम थी,
थी भूख से जूझती
कैसे किस्मत से लड़े?
3-
यदि ना होता पापी पेट
ना मौतका दाँव लगाती वो,
आँखों देखी एड्स बीमारी
कभी न घर में लाती वो,
हे संविधान,तुझे सलाम
तू उसकी रक्षा करना नेक,
आखिर वह भी है अधिकारी
जिसने शिकायत की ना एक।
4-
मजबूरी में हर नारी
वेश्या का लांक्षन पाती है,
संसार उसे कब जीने देगा
कूद समुन्द्र में जाती है,
लेकिन तब भी वैश्याधर्म
वह खुश होकर अपनाती है,
बेशक,रातोंरात सिसककर
काली रात बिताती है।
5-
जिन्दगी का तलबगार
कोई नहीं,
अपनी ही तलब के
प्यासे हैं लोग,
बेख़ौफ़ उड़ा रहे
गुनाहों के बादल,
लहू के हमारे ये
प्यासे हैं लोग।
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बहुत सवेदनशील कविता है
रिंकी जी,पसंद के लिए आभार।वास्तव में स्त्री अधिकार रहित शब्दजाल में जीवनयापन करने को विवश रही है।