प्रकृति के प्रति
चलो, गीत ऐसा लिख जायें
ओठ फूल के खुल-खुल जायें।
सप्तसुरों की सरगम में भी
सतरंगों की महक जगायें।
चलो, गीत ऐसा लिख जायें
ओठ फूल के खुल-खुल जायें।
गीत बसे जा उन डाली पर
जिनपर पंछी नीड़ बनायें
नीड़ों के आंगन में भी जा
चहक-चहक कर प्रीत जगायें।
चलो, गीत ऐसा लिख जायें
ओठ फूल के खुल-खुल जायें।
पास कहीं झरनों में छिपकर
बूँद बूँद से घुल-मिल जायें
और धुंध के सघन पटल पर
इन्द्र धनुषी छटा बिखरायें।
चलो, गीत ऐसा लिख जायें
ओठ फूल के खुल-खुल जायें।
गुंजन करते भ्रमर सरीखे
शब्द अर्थ पर जा मंडरायें
और जगत के कोमल उर में
गीतों की झंकार जगायें।
चलो, गीत ऐसा लिख जायें
ओठ फूल के खुल-खुल जायें।
प्रकृति का श्रृंगार सलोना
सारा महका बहका जावें
पगडंडी की पायल को भी
रुनझुन रुनझुन खनका जावें।
चलो, गीत ऐसा लिख जायें
ओठ फूल के खुल-खुल जायें।
संग प्रकृति के सृष्टि सजेगी
इसी सोच के गीत सजायें
लेकर गुच्छ सुरों का सुन्दर
गीतों में जा हम रम जावें।
चलो, गीत ऐसा लिख जायें
ओठ फूल के खुल-खुल जायें।
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