कोई दे दो वक्त की बूंदे, मैं प्यासा व्याकुल पड़ा हुआ
तुम हो बहते वक्त के दरिया, कुछ तो बांटों बूंद मियां
यूँ तो अंदाज हमारा भी, बेश़कीमती होता था
वक्त कभी अपने यहाँ पर, अपना वक्त ही खोता था
कहाँ गईं जानें वो घड़ियाँ, कहाँ गया अपना बचपन
कहाँ गईं वों हुल्लड़ बाज़ी, गया कहाँ वो चंचल मन
कहाँ गईं वो बाती जिनसे, घी का घर में जले दीया
तुम हो बहते वक्त के दरिया, कुछ तो बांटों बूंद मियां
अब तो अक्सर बेमतलब ही, खूँखार शख्स सा लगता हूँ
बिन बातों के अक्सर अब, मुँह से आग उगलता हूँ
चारों ओर सभी चीजें हैं, जानें फिर क्या गायब है
छोटी-2 रुसवाई में अब तो, अपने रंग बदलता हूँ
कुछ तो कमी हमीं में होगी, हासिल नहीं हुआ हमें जीया
तुम हो बहते वक्त के दरिया, कुछ तो बांटों बूंद मियां
वक्त वो सारा चला गया, रक्त न मेरे मतलब का
सारी पूँजी लूट गई जैसे, वक्त न मेरे मतलब का
कैसे सबकुछ फिर पा जाऊँ, यत्न मुझे कुछ सूझे ना
सबकुछ रोज़ है और बिगड़ता, राह कोई मुझे बूझे ना
कुछ तो वक्त मुझे मिल जाए, कुछ अब तक मैंने नहीं किया
तुम हो बहते वक्त के दरिया, कुछ तो बांटों बूंद मियां
अरुण जी अग्रवाल
Arun You doing good.
धन्यवाद संदीप जी
You are welcome..