निकला जख्म कि सर
खुजाया मैंने,
एक जूँ के सिवा
क्या पाया मैंने?
सर था अपना
नाखून का कलेजा,
दहशतगर्द खाक में
मिलाया मैंने।
हुई तकलीफ कि जाँ
उसकी गई,
आईना-ए-सदन
दिखाया मैंने।
क्या मालूम था
एक्सप्रेस को समझौता,
बगैर अश्क जिगर
रुलाया मैंने।
नाहक जिंदा जले कि
मुसाफिर ट्रेन में,
कल का मुकर्रर कफ़न
मंगाया मैंने।
ये भी है जेहाद का
तरीका कोई,
ज़नाज़ा-ए-वतन
उठाया मैंने।
मुशर्रफ,मनमोहन
आडवानी,अटल,
दीवाने-सजा-ए-दार
सजाया मैंने।
साहिबो,हक है तुम्हें
उस जूँ की तरह,
मसल दो कि मसला
उठाया मैंने।
निगाहें सुर्ख ओ अश्क
समन्दर हुए,
किस क़ाफ़िर को करीब
बिठाया मैंने।
जुर्म गंवारा नहीं
इस जमीं पर ‘मुकेश’
इस जमीं को खुदा
बनाया मैंने।