1-
मैं कहूँ पर किसलिए
सुनता न कोई हो,
दर्द-ओ-दवा का रहा
रिश्ता हकीम से।
2-
मेरी हर एक बात को
नापते हो क्यों,
शब्दों का तुम्हारे बोझ मैं
कब से लिए खड़ी?
3-
मिलकर बना लो बात गर
तब भला क्या रंज,
दुश्मनी की बंदूक से
बारूद ही बरसे?
4-
उम्र तो बीती मगर
दहशते-अंजाम भी,
शाम तलक ख़त पे मेरे
था खन्जरे-कोहराम।
5-
लगने लगी अब कहाँ
हमको कोई नजर,
आशिकोँ की बस्तियां ओ
इत्र से स्नान।
6-
निकला नहीं जो कदम
दहलीज से बाहर,
वो लिखेगा क्या भला
जन्नत की किताब?
7-
तकाज़ा कुछ भी नहीं लेकिन
फिर भी न जाने क्यों,
मुस्कुराकर बात करना
चाहता है दिल।
8-
लगाऊं किस तरह दिल को
नहीं दिल दूसरा कोई,
सुलगकर आग हो जाए
झुलसकर खाक हो जाए।
9-
बनकर मुसाहिब सोचता हूँ
क्या भला आखिर,
बेज़ा मेरी जिन्दगी या
खयाल बेवफ़ा।
10-
महफिल मेरी वीरान क्यों
देखा उठी नजर,
मौजूद सारी हस्तियाँ
महबूब बेबरसात।
11-
हाय री किस्मत कि
शहर शराबियों का,
बेबसी पर ठुनकता है
बेवफ़ाओं की तरह।
12-
लगी हो आग तो
तपा लें जिगर हम भी,
बुझी को दिखाना आईना
कहाँ तलक अच्छा?
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श्रीमान आपके शेर बहुत सुंदर है, भाव भी बहुत गहरे है,
पर एक शिकायत भी है, आप एक बार मे कम से कम 10 शेर एक साथ पोस्ट करे ताकि पढ़ने वालों को अधिक आनंद आए तथा वैबसाइट पर भी अधिक लोड ना हो, ये मेरी आपसे जाती गुजारिश है,
एक बार पुनः अछे शेरो के लिए धन्यवाद।
मनोज चारण
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मनोज चारण जी,
आपकी भावनाएँ और सुझाव के प्रति मेरी गम्भीरता भविष्य में रचनात्मक होगी।