कुछ दरख़्त थे जो नज़र आते थे मेरे घर की खिड़की से
काट डाला है उन्हें शाख-शाख, बढ़ती इमारतों ने बेरहमी से…
अभी कुछ बरसों पहले की बात है,
जब था इन दरख्तों पे परिंदों का बसेरा,
चहचहाहट से गूँज उठता था,
हर पहर, हर साँझ, हर सवेरा…
दिया है सुकून न जाने कितने मुसाफिरों को,
ये दरख़्त ही तो हैं जो पुकारते हैं बहारों को…
अंधी दौड़ में झुलसे जा रहे हैं
अनगिनत बेबस-बेजुबान आशियाने
कब कम होगी इन ख्वाइशों की रफ़्तार,
ये तो बस खुदा ही जाने…
इक समय था जब ऊंचा हुआ करता था आसमान
अब दिन-ब-दिन जितना छोटा हो रहा है इंसान,
उतना ही ऊँचा होता जा रहा है उसका मकान
This is good Garima!!
विलासिता एवं प्रतिस्पर्धा की लोलुपता में घटते मानवीय मूल्यों को दर्शाने का खूबसूरत प्रयास …बहुत अच्छे गरिमा !!
Thank You