आखिर कितना
और कितना संकुचित होगा
हमारी संकुचित सोच का
दायरा,
सामाजिक महत्व।
म्रतावस्था की स्थिति में
मनुष्यता के आयाम,
पड़ोसी के नाम की
संवेदनाएं।
कुछ भी तो शेष नहीं
सिवाय
ग्रह क्रमांक के।
जहाँ धराशाई हो रहा है
भावी जीवन-रेखा का
स्म्रतिपटल।
जो धरोहर थी
उस परमपिता की
जिसने मनुष्य को
जीवन दिया,
सहेजने को
व्यवस्थिति संस्क्रति का
विस्तार।
जिसके क्षतिग्रस्त माहौल में
नहीं उठ पाते दो हाथ
पर चलती हैं
दो उँगलियाँ
बुलवाने को ‘एम्बुलेंस’
एम0सी0डी0 की
त्वरित सेवाएँ।
जो मनुष्य को
मोबाइल-संकेत पर
पशुओं की मानिंद
लादकर ले जाती हैं
आँसुओं से विमुख लाशें
‘मनुष्यता के आयाम’
दर्शाती हैं॥
बहुत अच्छी रचना है