1-
ईमान के पुर्जे नहीं
मिलते कभी बाजार में,
रहा ठगा सा देखता
काशी अरु हरिद्वार में,
हर जगह व्यापार था
भगवान की किताब का,
पंडा पार कर रहे
आत्मा मंझधार में।
2-
चरागों को जलाकर
अंधेरा खत्म कर दोगे,
उजालों से दामन हमारा
वत्स,कैसे भर दोगे?
जब आएगी दुल्हन किसी
दम छम से आँगन में,
बुझा देगी दीपक नूर के
मना क्या उसको कर दोगे?
3-
मंजिल की परवरिश का
सागर तुम्हीँ हो,
क्या उठाकर किनारे
बहाकर रहोगे,
जिन निगाहों ने जीभर
समन्दर न देखा,
उन निगाहों सहरा
बसाकर रहोगे?
4-
बुझदिल तो न था
मात खा गया कैसे,
इतने भीषण जुर्म को
पचा गया कैसे,
ये सोचकर हैरान था
जब जाना हाल,
गर्दिशों में गीदड़ भी
शेर नजर आता है।
5-
बस्तियों में हस्तियों का
शैलाब आ गया,
झुलसी हुई चमड़ी को
और झुलसा गया,
बेबसों के दामन
न मलहम लगा सका,
जले पे तेजाब का
लेप चढ़ा गया।
बिल्कुल यथार्थ से परिपूर्ण पंक्तियाँ लिखीं हैं।
धन्यवाद ऐसे भाव साँझा करने के लिए।