माना आज बसा ली है हमने अपनी इक छोटी सी दुनिया,
पर चलते-फिरते लौट आता है मन किसी और सदी मैं…
जब हमारी पूरी दुनिया हुआ करती थी तेरा आँचल,
जब होने नहीं देती थी तू हमें इक नज़र भी ओझल…
जब रोते थे ये सोच कर की तू बहला-फुसला लेगी..
जब गिरते थे ये सोच कर की तेरी बाहें थाम लेंगी…
ये वो दिन थे जब चूल्हे की आंच भी ठंडक सी देती थी,
ये वो दिन थे जब तेरी मार भी प्यार सा लगती थी…
खेलते-कूदते लगी हर चोट पर, दर्द तुझे होता था,
आँखें तो हमारी भर आती थीं, पर दिल तेरा रोता था…
और जब कभी हो जाता था शरीर ये बेजार,
सुकून आता जब तू माथा सहलाती, सर्दी-खांसी हो, या बुखार…
इन बीते सालों में, थोड़ा-बहुत, जो कुछ भी किया हैं हमने हासिल,
ये तेरी मेहनत हैं, जो आज बन गए हैं हम किसी काबिल…
तूने पाल-पोस कर “बड़ा” तो कर दिया माँ,
पर ये नहीं बताया, इस “बड़ी” सी दुनिया में,
जब दिल बिलखता हैं तो हँसते कैसे हैं…
अपनों में बेगाने बनकर जीते कैसे हैं,
“बड़े” होकर, फिर बचपन में लौटते कैसे हैं…
— गरिमा मिश्रा
maa kavita bahut achhi lagi
Thanks