आँखें गढ़ा कर देखता हूँ
कुछ साफ नज़र नहीं आ रहा ,
देखने की तमाम कोशिशें बेकार हैं
क्योंकि सामने तो कोहरा ही कोहरा है ।
कुछ हल्का ,फीका, धुंदला सा दिख रहा है
असमंजस में हूँ ।
आखिर मैं मंज़िल तक कैसे पहुंचूँ ?
कब यह कोहरा छँटेगा ?
कब यह रास्ता साफ नज़र आयेगा ?
असमंजस मैं हूँ।
मंज़िल पाने की तीव्र इछा रखने से क्या होगा ?
नज़रों की असीम काबलियत से क्या होगा?
आखिर इंतज़ार करना ही पड़ेगा
इस घने कोहरे के छँटने का ।
इंतज़ार !
एहसास तो है उस ठिकाने का
जो खूबसूरत है ,अनोखा है ,
पर,
एहसास से कोई मंज़िल तक पहुंचा है क्या?
इंतज़ार कर !!
देख सूरज की किरणें चीर देंगी
इस घने कोहरे को ।
इंतज़ार कर !
जल्दबाजी न कर ,
क्या जाने तू ?
कहीं टकरा न जाये ,
ऐसी किसी चीज़ से
बस थोड़ा सा इंतज़ार कर,
छट जाएगा यह घना कोहरा
रास्ता साफ होगा,
तू निश्चय ही पाएगा मंज़िल को ।