वो नदी सी रात -दिन,अनवरत बहती रही , ,पुरूष अडिग पहाड़ सा,चल न पाया एक डग ।
मोमबत्ती सी जली वो,प्रकाशित घर होता
रहा,
पुरुष जब भी जला, धुआं वातावरण में छा
गया ।
नारी ने जीवन जिया, सदैव ओरों के लिए,
पुरुष जीवन सिर्फ, स्वयं के लिए ही कम
रहा ।
त्याग, प्रेम, सेवा-निधि, लुटाती रही जो सर्वदा,
पुरुष रहा अभ्यस्त केवल, जोड़-तोड़ हिसाब में ।
नारी रही साम्राज्ञी,अन्त: के संसार की,
पुरुष रहा सम्राट, केवल बाहरी परिवेश
का ।
नारी अनुभूति प्रेम की, लयबद्ध कविता
सी रही,
अहं के बशीभूत नर, क्लिष्ट रहा है लेख
सा ।।
-विश्वम्भर पाण्डेय ‘व्यग्र’
कर्मचारी कालौनी, गंगापुर सिटी,
स.मा.(राज.)322201