चाह स्वर्णिम भोर की
आकार बौने जागरण के
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- प्रावधानों की उलझती
- भीड़ जीवन हो गई है
कृत्य काले दृश्य उजले
देह भस्मीली दिशा है
नृत्य बेड़ी में लपेटे
घूमती फिरती ऋचा है
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- पीर दूजों की चुराती
- मानवी रुत सो गई है
नींद ओढ़े बिजलियाँ हैं
रतजगे पर तितलियाँ हैं
अब स्वयँ को पूजने की
आरती हैं तालियाँ हैं
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- जो धरा पूजे सजाए
- वह जवानी खो गई है
हैं पराजित खोज सारी
गीत स्वर मृदु सोच सारी
अब सुगंधों से विमुख हैं
मूर्छित हैं फूल क्यारी
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- सद सुधा आवाहना
- बेहद ज़रूरी हो गई है