शऱीऱ में
जगह -जगह
उग रही है
घांस
काली घांस
कुछ लोग जो
इस घांस
को
सजाया करते
हैं
कहीं सफेद
तो
कहीं
भूरी
कभी देशी
तो
कभी विदेशी
सलीके में
खिली हुई
कभी अलग थलग
सी
खडी हुई
कभी
पीछे की ओर
मुडी हुई
रंग-बिरंगी
ये घांस
पर क्या…
ये
विदेशी नकल
यूँ ही
भुला देगी
संस्कृति
हमारी सभ्यता
हमारा परिवेश
आखिर
कैसा है
ये
बदलाव
क्या रुक जायेगी
ढलती उम्र
इस
घांस को
रँगने से ¿
कवि- विनय “भारत”