“म”
ऐसा शब्द
हटाने पर जिसे
बिखऱ जाती है
भाषा हिन्दी,
संस्कृत भी
कहाँ टिक
पाती है
“म” के पुत्र
अनुस्वार के बिना
इसी “म”
की
एक महिमा है
“माँ”
जिसके बिना
कहाँ चल सकता है
कोई संसार,
वह माँ
जिसका आँचल
सिंहासन से
बढकर है
उसी “म”
शब्द से
बना हूँ
“मैं”
जो करता हूँ
शरारत
विविध अठखेलियाँ,
हाँ,
“म” शब्द से
बनी है
प्रकृति की
अनुपम छटाकृति
“माँ”
उसी माँ से
बना हूँ
“मैं”
आखिर
मिलता जुलता ही है
“म” और माँ
से
मेरा संबंध
“म” से बना
‘मैं’
व्यवहार में
‘माँ’
से आया मैं
संसार में
कवि- विनय भारत