ज़र्रों में क्यूँ खोज रहा है काफ़िर शुकून के पल यहाँ,
ज़िन्दगी की रेत पर टिकते हैं वक़्त के निशान कहाँ |
कहीं धुप खिली है आज जहाँ, कल शायद छायाँ हो जाए.
कोई शोला है जो आज यहाँ कल शायद शबनम बन जाए |
तू पथिक नहीं अकेला है दरिया की तालाश में.
बहुतेरे हैं हमराही तेरे, जो झुझ रहे अंगारों से|
लौह है तेरी भुजाओं में, है तेज तुझमे सूर्य का
तेरी रगों में जो खून बह रहा, वो है आर्य पूत का |
निश्चय हो तेरा अटल अभी, तपस्या हो अविरल तेरी.
आगे है दुर्गम राहें तेरी, भूल न जाना मंजिल अपनी |
जजबातों की मजधार में तू मत फंसना,
घनघोर घनेरे जंगले में तू नही बहकना,
रम्भा के हुस्न पर भी पर तू नहीं फिसलना,
तूफ़ान भी आए तो इक पग भी नही हिलना |
जो तुझे न कोई फ़िक्र हो, ना दूजी कोई चाह हो
तू सिर्फ एक लक्ष्य को पाने को बेताब हो
तुझे न कुझ भी कर गुजरने से इनकार हो
तो होगी फिर जीत तेरी जो वक़्त को स्वीकार हो!