माँ सी मौसी
आगबबूला जाने कब से,
अंगारों में लड़खड़ा गई
आवारा बच्चे ना माने
पकड़ें गरदन
करें शरारत उसको काटें
लहू भरे गालों पर चाटें
बही वेदना की सुरंग से
बारूद भरी
गोली निकली तड़तड़ा गई
ताप जगाती घुसी देह में
चुभती किरणे
छुये जिगर को, चमड़ी जलती
हाय निगोड़ी, बैरन छलती
चिमनी आई,
झाड़-फूँक को, कर्कश इतनी
शोर में सृष्टि भड़भड़ा गई
लाल चेहरा क्रोध लुढ़कते
पत्थर का सा
देख देख कर बिटिया रोती
मौसी पागल-पागल होती
समझ न आई
महाकूप से निकली ज्वाला
झुलसी बुढ़िया बड़बड़ा गई ।
-हरिहर झा