हनुमान्-रावण संवाद
रावण :
हनुमान्जी को नागपाश में बंधा देखकर, हंसा ठाके लगा कर रावण,
लंकापति ने कहा- रे वानर! तू कौन है? किसके बल पर तूने उजाड़े वन,
क्या तूने कभी कानों से नहीं सुना मेरा यश और नाम,
किसकी शह पर राक्षसों को मारा, क्या प्यारे नहीं हैं तुझे अपने प्राण।
हनुमान :
जो देवताओं की रक्षा हेतु ,नाना प्रकार की देह करते धारण
जो खर, दूषण, और बालि की मृत्यु का बने कारण ,
तुम्हारे जैसे मूर्खों को देते है शिक्षा ,
जिसकी पत्नी का हरण किया तूने मांगकर भिक्षा,
तेरे लिए हूँ यमदूत ,श्री राम का हूँ मैं दूत ।
मुझे भूख लगी थी, इसलिए फल खाने का था मेरे मन ,
वानर स्वभाव के कारण नष्ट कर डाला तेरा हराभरा वन ,
तेरे पुत्र मेघनाथ ने तब छोड़ा नागपाश ,
बांध कर मुझे ले आया तेरे पास ।
हे रावण! मैं विनती करता हूँ, तुमसे हाथ जोड़कर
प्रभु की शरण में आ जाओ तुम अभिमान छोड़कर,
रामजी के चरण कमलों को हृदय में करो धारण,
लंका के विनाश का मत बनो तुम कारण ।
भ्रम को छोड़कर बन जाओ श्री राम भक्त ,
कुछ नहीं बिगड़ा अभी भी तुम्हारे पास है वक्त ,
वह जिनके डर से काल भी है डरता,
वापस करो शराफत से उनकी सीता ।
रावण :
सुन हनुमान्जी की भक्ति, ज्ञान, और नीति से सनी हित की वाणी ,
रावण हँसकर व्यंग्य से बोला , मिला हमें यह बंदर बड़ा गुरु ज्ञानी ,
फिर क्रोध से मस्तक उसका हो गया प्रचंड ,
सैनिकों को दिया उसने आदेश , दे दो इस वानर को मृत्यु दंड ।
सुनते ही रावण का आदेश ,सैनिक दौड़े उन्हें मारने,
उसी समय विभीषणजी वहाँ आ पहुँचे बात को सँवारने ,
देख कर रावण को अत्यंत क्रुद्ध ,
विनयभाव से बोले , दूत को मारना है नीति के विरुद्ध । ,