संभाबना के उच्याशा में खोये है इस मन का चैन
रातों को न सो कर केवल सपना देखे हैं दो नैन ।
कभी ख़ुशी के साथ निमंत्रण, कभी विसर्जन अश्रुमय
मृगतृष्णा के पीछे भागे, दिन को की है काली रैन ॥
पूर्णिमा की चंद्रालोकित पुष्पकमल थे मनमोहक
इश्वर की अनुपम सृष्टि भी कर न पायी मन को प्रेक्षक ।
कभी थी चिंता धन की और कभी आशंका प्रियजन के
क्षणिक सुख के मोहजाल ने मन को सदा किये भ्रामक ॥
पानी भरने की इच्छा में चल पड़े थे हम घर से
और बृहद आकर को खोंजे आगे बड़ गये हर जल से ।
तृष्णा निवारण के लिए तो एक बूंद पर्याप्त थी
आज छुं लिया है समंदर प्यासा मन फिर भी तरसे ॥
गति में उन्मद यूँ भागे हर एक नज़ारे छुट गये
तिनका तिनका प्यार से जोड़े रिश्ते सारे टूट गये।
अर्थसिद्धि से आज तो ख़ुश कर लिया है दुनिया को लेकिन,
तन्हाई में बैठके हम आपने ही आपसे रूठ गए ॥
आँगन छूटा, बस्ती छूटी, छूटा आपना गाँव और देश
नये जगह को आपनाने में रहा ना कुछ भी खुद में शेष ।
दर्पण झांक के जब देखे हम, पड़ गये खूब अचम्भे में
एक अजनबी खड़ा हुआ था पहनकर मेरा ही भेष ॥