शुक्रिया कि तूने लफ़्ज़ों की मौज को,
ठौर देने कि है कोशिश.
अब ख्वाहिश यही है कि डूब के,
देखूं इसमें.
महक गयी है, तेरे आने से मेरी बस्ती,
तू है एक मुस्कराता सा सुर्ख गुलाब.
किताबें पढ़ के देखीं हर तरह,
पर ये दुनिया इतनी अलग सी क्यों है.
ज़माने ने कहा कि वो है कामयाब,
पर ‘राज’ , वो इतना खाली सा क्यों है?
सितम्बर, २००६
यार के दीदार को तड़पता रहा मैं कई शाम,
पर उस शाम जब वो मिला तो बारिश ना रुकी .
तेरे काँधे को छूता मेरा कांधा,
औ’ ज़माने की रवायत.
‘राज’ उस दिन –
पास होकर भी इतनी दूरियां क्यों थीं?
आ लेके चलूँ तुझको कहीं दूर , हमसफ़र ,
बनता रहूँ, मिटाता रहूँ, मैं तुझमें उम्र भर.
wah wah wah wah,,,,
bahut hi umda sher hain ji,.