हिंसा की चोट से,
दबी-दबी जिंदगी।
अहसासों के नीचे,
पली-पली जिंदगी।।
खामोशी के गावों में ढलती जा रही,
कड़ुवाहट की छावों में छलती जा रही।
अपने ही हाथों से,
ठगी-ठगी जिंदगी।।
चीखती-तड़पती सी ये जाती है कहाँ,
घायल हिरनी जैसी बल खाती है कहाँ।
अफवाहों के मग में,
फंसी-फंसी जिंदगी।।
कल बड़ी थी जिंदगी ये खुशमिजाज सोचिये,
वेगहीन नदिया जैसी है आज सोचिये।
झूठ की फुहारों सी,
पड़ी-पड़ी जिंदगी।।
– रचनाकार :: मनमोहन बाराकोटी “तमाचा लखनवी”