नये साल काश कुछ नया नया सा होता
सपने होते नये नये,नया हर सुबह का ख्बाब होता।
हवा होती मंद मंद मुस्काती,सूरज का नया ताप होता
रंगो से निकलता दिन सबका, रात दियों का साथ होता।
हंसी खिलती चेहरों पे, मासूमों सी रंगत होती
हसते खिलते चेहरों पे सोलह श्रृंगार होता।
गरीबी का दर्द न होता, भूख औ बेगारी न होती
खेत औ खलिहानों में भरा अनाज का भंडार होता।
जीवन के वो दर्द न होते, जिनसे उठती टीस पुरानी
एक दूजे की मुस्कानो से ही जख्मों का इलाज होता।
पर ऐसा कुछ भी नहीं, सब कुछ वही पुराना है
वही दर्द है सीने में औ वही जख्म दीवाना है।
वही धरती रोती है प्यासी,वही सूरज आग तपाता है
वही रगो से लहू पानी बन बहता जाता है।
अब भी डरते है लोग हसते हुए , मुस्काते हुए
अपनो से भी मिलते है तो, छिपते हुए, छिपाते हुए।
होली के रंगोे से डरते है राते दीये जलाते नही
त्योहार कोर्इ भी क्योंं न हो, खुलकर वो मनाते नही।
फैल गया है जहर हवा में सांस तक लेने नहीं देता
युग परिवर्तन….कैसा परिवर्तन, भाव मनों के बहने नहीं देता।
धुट धुट जीवन जी रहा मानव ….धिक्कर ऐसे जीवन पर
उस पर विडंबना इतनी उसकी, मौत उसको कहने नहीं देता।
मैं तो तब मानू साल नया, जब मुझको अहसास हो
मेरे अपने सब रंग, मेरे ही आस पास हों।
मैं हसू तो हसे जग, मैं रोउ तो उदास हो
मैरे होने न हेाने का उसको भी आभास हो।
आज नही तो कल दिन वो भी आयेगा
तारीखों के साथ साथ, साल नया बन जायेगा।
दिल से निकलेगी तब मेरे, दुआअेां की फुलझडी
औ आखों से जब निर्झर प्यार का बह जायगा।
एक दिन साल वो भी नया आयेगा।
एक दिन साल वो भी नया आयेगा।
वंदनामोदी गोयल, फरीदाबाद
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