अपने तो अनेक सपने हैं
कुछ दूजों का भी कर जाओ
मर्त्यभुवन के इस धरा पर
उपकार किसी का कर जाओ।
पंचतत्व का बना शारीर यह
इक दिन तो मिट जायेगा
धन, दौलत, दुनिया को छोड़
संबल में सुकर्म ही जायेगा।
कितने आये, गए कितने
यह क्रम तो चलता रहता है
करती है याद दुनिया उसे
सुकर्म के राह जो चलता है।
स्वार्थी को मिलता नाम नहीं
धन-दौलत ही सब धाम नहीं
परमार्थ ही है मूल मुक्ति का
स्वार्थ का जिसमे नाम नहीं।
करती वसुधा हर भार ग्रहण
साई न किसी से लेती है
हर दुःख-संकट को सह कर भी
पालन सभी का करती है।
करते हैं रवि उज्जवल सबको
धन-निर्धन न बागते हैं
देते सबको सुख-दुःख सामान
अन्धकार दूर भागते हैं।
इसी प्रकार निश्छल-निर्लोभ
दीन-दुखियों का देव बनो
निःस्वार्थ काम करने की
तुम भी एक सन्देश बनो।