मुख से वो यूं ना कहके, क्यूं ज़ुल्म ढहाते हैं,
इक बार तो वो कहदें , जो हम चाहते हैं।
क्या जाने वो के दूर से,ही दे देते हैं वो ज़ख़्म,
दिन रात सुबहो-शाम,हम हर वक्त कराहते हैं।
एक वक्त था जब प्रेम से,वाकिफ़ नही थे हम,
हर लम्हा तुम्हे पाने की, अब तरकीब जुटाते हैं।
अश्कों से भर लिया है , मुहब्बत का ये बरतन,
कब प्यासी बनोगी तुम , ये आस लगाते हैं।
दिन रात मे अ कमशिन,ख़्वाबो मे तुम हो छाई,
इक पल तेरे ख़्वाबो में , हम जगह चाहते हैं।
मुकेश गुजेला “बघेल”
सियाह रात के साये में आना जाना क्या
जो रिश्ते टूट चुके हैं उन्हें निभाना क्या
सुन्दर प्रस्तुति बकौल एक शायर उनका मिसरा बयां करना चाहूंगा
.कब छूटता है रिश्ता जाने से ए दिल चाह कर भी जिसे बिसराना क्या.