प्रकाश स्तंभ का होना
अधिकारी -अनाधिकारी
जलयानों का
दिग्दर्शक बन
तट पर खड़ा ’स्थूल गन्तव्य’
तट का आभास-’प्रकाश स्तंभ’ ।
मगर तट पाने
झंझा की नाव को ही
जूझना-झेलना होता है
सागर का क्रोध,
हवाओं की झोंक,
लहरों की शूल बीच
खोजना होता है किनारा
सब अपनी ही कूअत पर ।
वहां नहीं होता
प्रकाश का साथ
स्तंभ का हाथ ।
कभी सुना आपने
कि किसी जलदीप ने
बढाया हो हाथ
बचाने डूबती नैया
लगाने किनारे।
हां ..
जब पा लेते हैं मंज़िल,
तो धरा के स्थापित
(भूल कर आपकी क्षमता,लगन,साहस,प्रयास ।)
बांध देते हैं सेहरा
(आपके पहुंचने का)
महिमा मंडन संग
स्तंभ के सिर,
और
आशीर्वाद में
बंधवा ली जाती हैं नावें
किनारे पर सुस्ताने,
ताकि वे
भूल जाएं बढना
छोड़ दें साहस ।
वास्तव में
प्रकाश -स्तंभ का होना
तट का होना नहीं है ।
तट का होना – ’तट का होना’ है
ज़मीन का होना है, ज़मीनी होना है ।
जो साधता है आपको
आप ही के पैरों पर,
कंधों तक ही नहीं
आसमां तक ।