उनकी झील सी आँखों में डूब कर मैं तो मरना चाहता था I
नज़र बचा ली उन्होंने वर्ना तो मैं कुछ करना चाहता था II
पीने की तलब थी मुझे और नाम लगा दिया यारों का,
रास्ते में था मयखाना वर्ना मैं तो सुधरना चाहता था I
कहीं खोया सा, गुम-सुम, विचारों में मग्न, बिखरा हुआ, बावला,
मेहरबानी थी अपनों की वर्ना मैं कब टूट कर बिखरना चाहता था I
ये तो नफरत की आँधियों ने उजाड़ दी मेरी फूलों की बगिया,
कुचले गए सभी फूल वर्ना मैं खुशबु का व्यापार करना चाहता था I
उसने आइना तोड़ दिया मेरे ही सामने मेरी ही सच्चाई कहकर,
मैं लडखडाया, वर्ना मैं कब अपनी ही नज़रों में गिरना चाहता था I
चलो अच्छा हुआ राहे वफ़ा में आ गई जो शब् रात एक दिन,
मान कर रब उन्हें, वर्ना मैं तो कसम से, पूजना चाहता था I
नश्तर से चुभोने लगे हैं अब तो वे किसी न किसी बात पर मुझे,
क्या करूँ वो जान गए, वर्ना मैं तो राज़ उनसे छुपाना चाहता था I
वो कहता था मेहनत कर और मैंने भी उसकी बाते मान ली ख़ुशी से,
वो सही था, वर्ना मैं पागल तो ख्वाबों में ही मुकद्दर बनाना चाहता था I
उनका साथ निभाने का वादा किया था जीवन भर, निभाया भी “चरन”
वो डरते थे बारिश की बूंदों से वर्ना मैं तो सावन में भीगना चाहता था II
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सर्वाधिकार सुरक्षित — त्रुटि क्षमा हेतु प्रार्थी — गुरचरन मेहता