मैं
जब मैं
’मैं’ नहीं होता
तो होता हूँ- एक लकीर,
बन्द आँखों चलना होता है
सब करना होता है अगम अनुरूप।
जब मैं
’मैं’ होता हूँ
तो
मैं होता हूँ- एक पागल,
स्वच्छन्द,स्वतन्त्र
निरंकुश शासक
अपने मन मस्तिष्क का।
जब मैं
’मैं’ होता हूँ
तो
बरस पड़ती है पीड़ा
रिसता है खून
पलास सा फलता है- दावानल,
राख से
सृजन की चाह में।
अंत तक
मैं
’मैं’ नहीं रह पाता
बना दिया जाता हूँ-एक भेड़,
रश्मों-रिवाज़ में बाँध कर
झुण्ड के अनुसरणार्थ।