मजदूरन माँ
भट्टी ज्यों धधकती भू
झुलसने वाली असह्य लू ।
योवन विषाद तर मातृत्व
अवसाद सभर यह अस्तित्व ।
छलकता वक्ष वतसल्य
ममता मूरत मञ्जु लावण्य ।
टोकरी थी उसके सिर पर
कनपती लुढ़्कते सीकर ।
व्यस्त पत्थर तोड़ने,ढेर जोड़ने में
टोकरी भरने और ढोने में ।
कि- धूप में भुना , सुना एक रुद्न
बेकसूर असहाय नवजीवन ।
रोता बिलखता एक जीव निर्बल
कभी झांकती बन मां वो मजदूरन ।
खुले हाथ, बंधे उदर बेल से
लाचारी-मजबूरी के मेल से ।
वात्सल्य ताकता कर्म आँख अनदेखा करती
चीख चीरती कलेजा,मजदूरन बहरी बनती ।
रख टोकरी सीने पर मजदूरन इठ्लाती
ज्यों लगा हो सीने से बच्चा,मन बहलाती ।
सोचती कब दिन दुष्ट ढले पहाड़ी पर से
कब नज़र हटे मालिक की मुझ पर से ।
कब उठाऊँ ममता में बेहोश हुए बालक को
कब बनाऊँ अपना इस मज़्दूरन के बालक को ।
साँझ हुई ममता से उठा मजबूरीपन
अब बनी वो ’माँ’ जो दिन में थी मज़दूरन ।