कुछ नाजुक हथेलियों को आज हाथ छुडाते देखा है,
उन नन्हें कोमल हथेलियों पे छालो का एक गुलदस्ता देखा है।
दर दर ठोकर खा कर चुपके से कोने में रोते देखा है,
महल छोड़ सड़को पर रात बीताते देखा है।
तपती कंकरीली धरती पर दिन भर रेंगते देखा है,
खाने के चंद निवालों पे मैंने उनको पिटते देखा है।
कुछ नाजुक हथेलियों को आज हाथ छुडाते देखा है॥
कई जन्मों से बन्दी दिलो को बगावत करते देखा है,
गैरों के जूठन के खातिर मैंने उनको लड़ते देखा है।
गिर कर उठने की आशा में उनको लडखाराते देखा है,
भागकर मंजिल पाने की चाहत में फिर ठोकर खाते देखा है।
दिल में उमड़ी रन्जिस को अल्फाज पकड़ते देखा है,
एक छोटी सी चेतना को फिर आगाज पकड़ते देखा है।
कुछ नाजुक हथेलियों को आज हाथ छुडाते देखा है॥
मंजिल को अपने कदमो से दूर निकलते देखा है,
अपनी ही परछाई को फिर पीछा करते देखा है।
बच्चपन की गलतियों को अश्को से धोते देखा है,
और उन अश्को के सागर में खुद को डूबते देखा है।
सूरज की पहली किरणों को छत पे आते देखा है.
पूस की काली रातो को ठिठुर कर बीताते देखा है।
बच्चपन के सुन्दर गहनों को धरती में दफनाते देखा है,
उजियाले के बाद फिर से अंधेरा छाते देखा है।
कुछ नाजुक हथेलियों को आज हाथ छुडाते देखा है॥