आदमी ही आदमी के, खून का पियासा है।
हादसों की त्रासदी है, सब तरफ निराशा है।।
नफरतों की दीवारें है, आपसी दरारें है।
सच यही हकीकत है, सच का ये खुलासा है।।
बदनसीब माँ को देखिये, उबालती रही पत्थर।
अपने दिल के टुकड़े को, दे रही दिलासा है।।
अमीरों व गरीबों में, गहरी हो रहीं हैं खाईयाँ।
मुफलिसों की जिंदगी से, हो रहा तमाशा है।।
आदमी है क्रूर हो गया, इंसानियत से दूर हो गया।
आदमी में सिर्फ स्वार्थ की, बढ़ गई पिपासा है।।
दुख पड़े न कोई साथ है, जिन्दगी का ये यथार्थ है।
दम्भी क्रूर आदमी से, नहीं कोई आशा है।।
दहेज की हैं बेदियों पर, जल रहीं हैं नित्य नारियाँ।
दुख है इस समस्या का, हल नहीं तलाशा है।।
न किसी से याचना करो, मुश्किलों का सामना करो।
व्यक्ति की बुलंदियों से, जाता मिट कुहासा है।।
रूप सभ्यता का बदचलन, इसलिए है हो रही जलन।
दिल का काला आदमी यहाँ, नाग बन कटासा है।।
आदमी ही आदमी के, खून का पियासा है।
हादसों की त्रासदी है, सब तरफ निराशा है।।
– ———————————————-मनमोहन बाराकोटी “तमाचा लखनवी”
वाह वाह क्या गजब की कविता लिखी है। मनमोहन बाराकोटी जी धन्य है आपकी लेख्ननी। आपको बहुत बहुत हार्दिक बधाई।
हार्दिक धन्यवाद Ravi ‘Saraswati’ जी।
बेहद भावपूर्ण रचना I बहुत खूब । सुंदर बोल ।