तोड़ो दहशत का सन्नाटा , कुछ तो बोलो जी !
बंद ज़ुबां पर लगा हुआ अब ताला तोड़ो जी !
मुर्दों की आँखों में आंसू मुश्कें तनी हुईं
आंसूं कोई पोंछो अब तो मुश्कें खोलो जी !
चेहरा चेहरा बेबस आँखें उखड़ी सांसे बोझ
सदियों सदियों वही तमाशा कुछ तो बदलो जी !
जीवन जितनी रात बितायी ऑंखें पथरायी
मौत मिली तो हमने सोचा चैन से सो लो जी !
संतोष तिवारी
१८/१०/१३
बहुत बढिया कविता है ।