कोख से धरती की कोख
इक शून्य से आकर, इक शून्य में जाना है;
माँ की कोख से आकर, धरती की कोख में जाना है;
फिर क्यों मानव, तू अनजाना है।
दूध से पला बड़ा हुआ, जिस्म से अपने तगड़ा हुआ;
अब क्यों ताक रहा मयखाना है।
चंचल,शोख, बचपन बीता,
चपल चांदनी जवानी आई;
जाना था जब विद्यालय में,
मदिरालय की राह नजर आई।
छूट गई पुस्तक किताबें तुझसे,
अश्लील रिसालों ने अपनी जगह बनाई।
छूट गये सब सखियाँ साथी बचपन के,
जो खेले आँख मिचैली थे;
अब मधुशाला है, मधुबाला है, मदिरा है, प्याला है।
रास-रंग की भी हद कर दी तूने;
जब नाचे सामने तेरे, रंगशाला की अर्ध-नग्न बाला है।
बचपन तेरा गुड्डे गुडि़यों में खेला,
लड़कपन में तूने पतंगों के पेच लड़ाये,
कंचे लटू तूने भी खेले;
फिर जवानी में तूने ये कैसे ले लिये झमेले।
अब जो खेल जवानी में खेला,
मौत बनके नशा, तुझ पे हो गई है भारी।
नशे का ही तो खेल है सारा,
जिसने तेरा जीवन उजाड़ा,
अब तो तेरे पास कोई ठौर नही है,
जीवन के हर मोड़ पर लग चुका है ताला।
तेरा रंग रूप है बिगड़ गया,
तू हर रोगों से आज घिर गया;
अब तो कुछ न बचा बाकी,
बहुत खेल लिया धरती की गोद में ,
चल, उठ, करले, लम्बे सफर की तैयारी;
अब यह नशा ले जा रही तुझको;
दूर,.. अति दूर,… शून्य, शून्य, शून्य और.. फिर,
धरती की गोद में ।
good poem