क्या कोई सुनेगा मेरी भी बात?
क्यों है दूर- दूर तक छाई वीरानी
सूखे पनघट,टूटे नाव, नहीं मेरा कोई नाम निशान
क्यों हूँ आज मैं सूखी,निर्जल
अपने ही जन से रूठी वीरान “गंगा”
नहीं रही अब मैं महान गंगा
भैरव की शीर्ष की शोभा
माँ के समान पूजनीय गंगा
कभी थी मैं देश की रक्त वाहनी
भागीरथ की कुल की स्वमानी
अब हूँ में नाले समान गंगा
अब मैं लोगो के पाप नहीं
उनके अभिशाप को ढोती हूँ
क्यों मुझ मैं तू डूबकी लगए?
जब तू मेरी पवित्रता
को ही सभाल ना पाए?
रिंकी जी आपने बहुत अच्छे से गंगा कि वेदना को प्रस्तुत किया है |आप जब कविता साधना में लींन हो ही चुकी हो तो माँ शारदे का आशीर्वाद तुन्हे मिले और साधना सिद्ध हो हमारी यही कामना है |
आचार्य जी,बहुत बहुत धन्यवाद,मेरी प्राथना है की ईश्वर आप को सुख-सुविधा प्रदान करे.