चल रहे जाने कहाँ कब से कभी समझा कोई?
फिर नया आकाश दो, आने को है सपना कोई||
फडफडाते चेतना के पर, इन्हें आकार दो|
काल भी यही रोकना चाहे, उसे दुतकार दो|
आग जो मन में बसी, उसको कलम की धार दो,
स्वप्न जो है बंद आँखों में उसे साकार दो|
जो अचेतन हैं, उन्हें कब तक कहे अपना कोई?
फिर नया आकाश दो, आने को है सपना कोई||१||
कल कभी आये नहीं, चाहे स्वयं को हार दो|
क्षण अभी है आज है, जीवन इसी पर वार दो|
आज अनगढ़ पत्थरों को मूर्ति का उपहार दो|
जो तुम्हारे हैं, उन्हें अब स्वप्न का संसार दो|
लक्ष्य तो संघर्ष से ही जूझकर मिलना कोई|
फिर नया आकाश दो, आने को है सपना कोई||२||
— दीपक श्रीवास्तव
दीपक जी पूरी कविता बहुत अच्छी है |ये दो पंक्तिया तो लाजबाब है |
आग जो मन में बसी, उसको कलम की धार दो,
स्वप्न जो है बंद आँखों में उसे साकार दो|
आपकी की इन दो पंक्तियों को मै अपनी एक गजल दो पंक्तियाँ समर्पित कर रहा हूँ |
अब ख्वाब यही अपना, हरवक्त् यही सपना |
लिखते लिखते नगमें मै तोडूँ अपनी दम ||
दीपक जी,
आपके कविताओं का बहुत बड़ा प्रशंसक हूँ । बहुत बढ़िया लिखते हैं आप चाहे देशभक्ति कविता हो, चाहे बाल गीत हो या चाहे श्रिंगार गीत हो ,प्रस्तुत गीत भी लाजवाब है।
बधाई और शुभकामनाएं !!