बहुत निभा ली यारी हमने चलो अब ये झूठा रिश्ता निभा लूँ,
झूठ कह कर जो कहो तो सच की तरह ही मैं भी सिर उठा लूँ ?
जो न समझो तुम बात मेरी तो क्या इसमें भी कसूर मेरा है,
अब लोगों की तरह मैं भी जाकर ओलों में क्या सर मुण्डा लूँ ?
जो हो गया सो हो गया अब क्या रोना और क्या पछताना,
ज़ख्मों को कुरेद कुरेद कर अब क्या मैं उसे नासूर बना लूँ ?
बिना किसी शर्त के मानी है हर बात हमने तुम्हारी अब तक,
गलती की नहीं फिर भी तुम चाहो तो अपनी नज़रें झुका लूँ I
चोट गहरी है, ज़रा वक़्त लगेगा चेहरे पर मुस्कराहट आने में,
चाहने से तुम्हारे खोखली हंसी का क्या मैं भी ठहाका लगा लूँ ?
दिल में बस कर अपना बनकर अपनों ने ही तोड़ा है दिल,
दिल तो चाहता है एक बार से फिर दिल की बाज़ी लगा लूँ I
लिखा रहने दो किताबों में कि सच कहता है आइना हमेशा,
दिल करता है सच्चाई के नाम पर नीम की पत्तियाँ चबा लूँ I
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गुरचरन मेह्ता
बहुत अच्छी ग़ज़ल
दिल की गहराईयों से धन्यवाद एवं आभार। nareshkavi जी
सच को सच कहने की हिम्मत हर किसी मे नहीं होती, ओर फिर नीम की सच्चाई तो क्या कहना है, ये सच चबाना हर किसी के बस में नहीं है, साब, इसके लिए तो कहना चाहूँगा जो किसी शायर ने कहा है की,
या तो दीवाना हँसे, या तू जिसे तोफ़ीक दे,
वरना तो इस दुनिया में, मुसकुराता कौन है।।
दिल की गहराईयों से धन्यवाद एवं आभार, मनोज चारण जी I
बहुत ही प्यारी ग़जल है गुरुचरण जी| हृदय की अतल गहराइयों में छुपी वेदना की सच्ची अभिव्यक्ति है|
दिल की गहराईयों से धन्यवाद एवं आभार, दीपक श्रीवास्तव जी I